Monday, August 17, 2015

संयुक्त परिवार से एकाकी जीवन तक का सफर

आज से कोई 20 30 साल पहले का जीवन, जंहा पुरा मोहल्ला एक संयुक्त परिवार की तरह होता था, सभी रात में एक सांझे चूल्हे पर भोजन बनाते, मिल बाँट कर ख्हते थे, फिर कुछ समय बदला , जरूरते बड़ी तो संयुक्त परिवार ने जगह बनाई, दादा-दादी चाचा ~चाची, बुआ आदि एक बड़ा संयुक्त परिवार जंहा कभी ऑफिस को देर हो तो चाची टिफिन बना देती थी, माँ बीमार हो तो बुआ स्कूल छोड़ आती थी, दादी के नुस्खे और कहानिया इलाज और मनोरंजन का मुख्य साधन में से होते थे| सब के साथ घर में ही पिकनिक हो जाती और विवाह शादियों पर तो पूछिये ही मत| यकीन से कह सकता हु के जैसे जैसे आप लेख पढ़ रहे होंगे आप के सामने यादे एक फिल्म की तरह चल रही होंगी, बहुत यद् आता है न वो जमाना , वो बिता हुआ कल|

                  फिर समाज और आधुनिक हुआ तो परिवार केवल माँ, बाप और दादा दादी तक सिमित रह गया| चाचा चची के घर जाना मस्ती करना कभी कभी की बात हो गयी और हम होली दिवाली जैसे अवसरों का इन्तेजार करते या किसी शुभ अवसर का | यंहा तक भी सब ठीक था परन्तु फिर और परिवर्तन आये, माँ बाप बोझ बनने लगे तो उन्हें आश्रम का मेहमान बना दिया| जैसे जैसे परिवार छोटा हुआ , संस्कारों पर भी असर पड़ा | आज के हालात देखिये, माँ एक शहर में नौकरी करती है पिता दुसरे शहर में तो स्न्स्ककर क्या देंगे , स्नेह और आशीर्वाद के लिए ही टाइम नही| सोचिये तो धी हम कहा जा रहे है, क्या खो रहे है क्या पा रहे है |
संयुक्त परिवार आज की असुरक्षित माहौल की जरूरत है, इसे अपनाईये



3 comments:

  1. आज का सही चित्र खींचा है आपकी कलम ने ..सच में अपना बचपन याद आ गया जब हम पड़ौसी और रिश्ते दारों में गहरा अपनत्व पाते थे कोई भेद न समझते थे सुख-दुःख हंसी-मज़ाक तीज त्यौहार सब साझा होते थे ..वास्तव में यदि तनाव रहित जीवन बिताना है,बच्चों को संस्कारित करना है तो संयुक्त परिवार की महती आवश्यकता है ..शानदार लेख शुभाशीष भाई .

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  3. अरे अमित बहुत ही खूब लिखा है आपने. आजकल एकता कहाँ से आए, मेरा मेरा होता है. हम और बस हम हमारा तो कब का भूल चुके है. वो ज़माना और था जब पडोसी भी अपने होते थे उनका दर्द अपना था. अब तो अपने भी भोज लगते है. तरकी के नाम पे रिश्ते ख़तम हो गए.
    खुश रहो बड़ो का आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहे

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